Friday, October 26, 2018

भाग्य

अब तक कहता था,
"अपना भाग्य अपने हाथ,
जैसा चाहो बना लो,
सफलता देगी साथ,
अगर इरादा पक्का हो

मंज़िल कैसे ओझल हो जाएगी,
अगर निगाहें टिकी हों,
मेहनत रंग लायेगी,
अगर तमन्ना साँची हो

सपने सच हो जाएँगे,
अगर ख़ुद में भरोशा हो,
एकदिन  तारे भी तोड़ लेंगे,
अगर दिल में आशा हो"

पर अब कहता हूँ,
"नहीं चला भाग्य पर ज़ोर किसिका,
क्या ग़रीब क्या धनवान,
भाग्य के बिना, नहीं मिलता कुछ किसिको,
बहुत बेगस है इंशान,

मंज़िल दो क़दम दूर हो,
और सारे रास्ते मिट जाए,
आँखें मंज़िल पर हो भी ,
तो कैसे उसे पाय ।

सपनों का शीशमहल जब खड़ा हो,
और भाग्य के ओले पड़ने लगे,
तो कैसे मनुष्य आकाश छूने खड़ा हो,
किस छतरी से अपने महल को बचाय" ।

यह जीवन एक भाग्यचक्र,
कुछ नहीं अपने हाथ में,
हम सब रंग मंच के पुतले है,
जिनकी डोर भाग्ये के हाथ में ।





आसमान से गिरना, आग पर चलना,
पहाड़ से टकराना, काँटों पर सोना,
जाने कितने ठोकर क़िस्मत और लगाएगी,
पर हर ठोकर के बाद, मुझे और मज़बूत वो पाएगी ।

बेग़ाना

ज़िंदगी की राह पे,
मुश्किलों से लड़ के,
कहीं हार के, कही जीत के,
कभी हंस के, कभी रो के,
तनहा ही सही, बढा तो जा रहा था ,
फिर जानें कहाँ से,
मेरी तनहियों को मिटा कर,
हार को भी जीत बनाकर,
आंशुओं को मोती में ढालकर,
तुम साथ मेरे आ गए

तपती मरुस्थल भूमि पर,
तन अग़न को मन अग़न से बुझाकर,
कभी तूफ़ान में उड़कर,
कभी लहरों में बहकर,
थका ही  सही, रुका तो ना था मैं,
तभी मंद हवा सी,
मेरी हर थकान मिटाकर,
शूल को फूल बनाकर,
चाहत की बारिश कराकर,
तुम साँसों में समा गए

तुमसे रिश्ता जोड़कर,
आँखों में ख़्वाब के सजाकर,
सपनो के गगन में,
इस दिल की हार धड़कन में,
बस तो तुमको लिया था,
फिर जाने क्यों,
हाथ मेरा छोड़,
तन्हाई की घूँट मुझे पिला,
आँखों को रुला,
अपना होते हुए भी,
तुम बेग़ाना मुझे बना गए